जीने की वजह तो दे
ज़िन्दगी कुछ तो वजह
छोड़ मेरे जीने की
ये डोर मेरी चारों ओर से
क्यों काट रही ?
बड़ी जुगत से सजाया
जो बाग खुशियों का
क्यों इसके तरु पल्लव
सभी तू छाँट रही ?
इन्हीं के चलने से है
चल रही मेरी सांसें
मुझे क्यों मेरे अपनो से
अलग कर बांट रही ?
तू ही बता भला
मै जिऊंगी किस दम पर ?
न धूप आई हिस्से में
न मेरी छांव रही ।
बसन्त हो गया शापित
मेरे जीवन तरु का ।
अब न बौर न ही कोयल है
चुभती कर्कश सी
कौओं की कांव कांव रही ।