जीने का सलीका
ये तेरी पावन मातृभूमि, नही है भूमि मात्र ।
सूत्रधार तू हर गाथा का नही है मात्र पात्र ।।
कर इसको सादर नमन् भूमि है ये महान ।
यही है तेरी मंजिलें, यही खुशी का जहान ।।
फिर निकल गंतव्य को कर पुनः प्रस्थान ।
करदे जीवन और जग-जीवन का उत्थान ।।
तेरा परिश्रम ही है तेरी सफलता का मूल ।
जो खिला सकता है पत्थरों में भी फूल ।।
जो सतत सींचती संवारती संतति सन्तान
ये नारी,नदी,धरती, प्रकृति चाहती सम्मान ।।
“जियो और, जीने दो” का तेरा यह विचार ।
स्वर्ग से भी सुंदर बना सकता है ये संसार ।।
तेरी धड़कनों में प्रेम की धुन है जो गूंजी ।
यही तो तेरा प्रेम ही है सबसे बड़ी पूंजी ।।
कभी अपनी धड़कनों को भी तो सुना कर ।
प्रेमधागों से भी कभी सपनों को बुना कर ।।
कभी बचपन की माॅ की, लोरी भी गुनगुना ।
अभी बूढ़ी मॉ की पुकार मत कर अनसुना ।।
कभी बच्चों से भी तो तू बोल तुतला कर ।
बूढ़े-बिसरों से भी मिल बिना इत्तला कर ।।
हिसाब ; चार दिन की जिन्दगी पाने का ।
एक दिन सोने का तो, एक दिन खोने का ।।
बचे दो दिन ; एक दिन कर ले कुछ काम ।
बाकी कर दें ये एक दिन, दूसरों के नाम ।।
रंज में डूबे को भी डूबा दे कभी रंग में ।
पीछे छूटे को भी ले चल कभी संग में ।।
जिंदादिली संग जीने से जिंदगी बढ़ती है ।
लघु प्रेमगीत भी लंबे आलाप से पढ़ती है ।।
जब हम कहते हैं मृत्यु तो अटल सत्य है ।
तो जीवन भी तो शाश्वत साक्षात् तथ्य है ।।
ये जिंदगी, ये दुनिया एक बार ही मिलती ।
खुश रहने से ही तो फूलों सी ही खिलती ।।
जीवन है अनमोल ले इसे जान-पहचान ।
चाहे बना लें हैवान या चाहे बना दें महान ।।
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मौलिक एवं स्वरचित : रचना संख्या-११
जीवनसवारो, मई २०२३.