ज़िक्र तक नहीं
हम तो हरपल सनम सोचते हैं तुम्हें
बस तुम्हारे ही दिल की ख़बर तक नहीं
तू ही तू है दुआ में ज़हन में बसी
और लब पे तुम्हारा ज़िक्र तक नहीं
जब ज़िकर हो तुम्हारा तो आ जाइये
बेवजह नासमझ दिल को तड़पाइये
बिन तुम्हारे अधूरी लगे हर शमां
सांस रुक जाए फिर तुम चले जाइये
महफ़िल ए हर गुलिस्तां तुम्हारे लिए
चाँद भी मुस्कुराता तुम्हारे लिए
कर रहा इस कहानी का जग भी जि़कर
ये फ़साना भी लब का तुम्हारे लिए
सांस रुकती नहीं ज़िक्र रुकता नहीं
राह ए इश्क में सफ़र रुकता नहीं
गर चलना पड़े तन्हा यूं कभी
प्यार होता अमर दर पे झुकता नहीं