जिस्म के पैंतीस टुकड़े
******* जिस्म के पैंतीस टुकड़े *******
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जिस्म के पैंतीस टुकड़े करा के चल दिये।
अपने मन की हवस बुझाकर के चल दिये,
मौज-मस्तियाँ रंगरलियां मनाई रात-दिन,
मौत की गहरी नींद सुलाकर के चल दिये।
अनुराग के सावन में क्या खोया क्या पाया,
पतझड़नुमा में फूल-पत्ते गिरा के चल दिये।
तनबदन और मन झट से हवाले कर दिया,
यौवन पिटारी लूट भूख मिटा के चल दिये।
विश्वास की चादर को रख दिया चीर कर,
प्रेम श्रद्धा की धज्जियां उड़ा के चल दिये।
माँ बाप घर बार छोड़ा दिलबर के ही लिए,
वहशियाना कर सांसें रूका कर चल दिये।
प्यार के बदले हमें वहशी बनकर मौत दी,
जीवन के सारे सपने बिखरा के चल दिये।
सोच लो मनसीरत इंजाम झूठे प्यार का,
बापू के सिर की पगड़ी उड़ा के चल दिये।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)