जिम्मेदारियों का बोझ
जिम्मेदारियों का बोझ
कंधे पर बोझ लादे कट रहा था मेरा बचपन
काला सा गंदा सा लगता था मैं
न देखा था कभी मैंने दर्पण
चल पड़ा था आज फिर किसी काम की तलाश में
कूड़े का बोझ मुझे उठाना था रोज गली गली से
जिस गली से निकला वहाँ दिखाई दिए सिर्फ
हँसते हुए मुस्कुराते हुए चेहरे उन बच्चों के
जो कंधे पर बस्ता डाले जा रहे थे स्कूल
जब मैंने उन्हें देखा दिल को बहुत अच्छा लगा
मेरे मन में भी स्कूल जाने का एक भाव जगा
भागा वहां से सीधा दौड़कर पहुँचा बाबा के पास
अब दिल में बनी हुई थी बस पढ़ने की आस
बाबा से बोला मैं कब पढ़ने जाऊँगा
कब मैं अपना बस्ता रोज सजाऊंगा
पर क्या पता था ऐसा समय भी आयेगा
बाबा की मृत्यु से सब पीछे छूट जाएगा
जिम्मेदारियों का बोझ मेरे सर पर आएगा
अब तो मैं बचपन में ही इतना बड़ा हो गया
जिम्मेदारियों के बोझ में कहीं खो गया
कहाँ गई वो किताबें जो मुझ तक कभी न पहुँची
क्यों मुझसे अब तक मेरी तकदीर है रूठी
काम करते करते मैं भट्टी में कितना झुलस गया
किताबें पढ़ना स्कूल जाना जिसके लिए मैं तरस गया
मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ है अत्त्याचार
मैंने इस बात पर कई बार किया है विचार
आज भी जिम्मेदारियों का बोझ लादे
पीछे छूट गया है मेरा बचपन
सोनी गुप्ता
कालकाजी नई दिल्ली -19