जिन्दगी..बहती एक नदी
जिन्दगी बहती एक नदी
बस बहती चली
कहाँ चली…न सोचा
न सोचना चाहा;
ऊबड़-खाबड़, टेड़े-मेड़े
सर्पीले पथरीले पथ
चलती चली बहती चली।
कभी राह रोकने को
पहाड़ सी बाधाएं
तो कभी किसी राह
का यूं ही मिल जाना
और फिर तीब्रता से
नये मार्ग पर निकल पड़ना
बस, चलते जाना
‘यश’ चलते जाना।।
डा. यशवंत सिंह राठौड़