जिन्दगी जिया नहीं मैंने तुमको
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लालसा बची रही जिन्दगी तुझे जीने की।
बाकी रही फैलने को हवा में गंध मेरे पसीने की।
तूने सपने दिये तूने लक्ष्य दिये हिम्मत मैंने जुटाये
पाँव मैंने उठाये दौड़ मैंने लगाये
जिन्दगी तू तो हिस्सा हमारा उसे गाँठ आए।
जिसने धोखा उमर भर तुमको दिया।
सभ्यता दर्द से चीख जो थी पड़ी
वही दर्द जीवन में मैं था जिया।
कर्म से जिन्दगी जीना रह ही गया।
कुछ आदर्श गढ़े कायम उस पर रहा।
लोग के साथ खिल्ली उड़ाये थे तुम।
संस्कृति बड़ी शर्म से थी तब गड़ी
वही शर्म मुझको हो खुद पर गया।
ग्लानि तेरी थी मुझे झेलना पड़ गया।
सारे रिश्ते जो जीवन में मेरे बने
ज़ख्म जैसे ही जीवन तक रिसते रहे।
धूर्तता,झूठ,अनाचार रिश्तों के सब
मेरे मन-तन पर अनवरत गिरते रहे।
जिंदिगी तुमसे प्रतिशोध लेने का मन
कितनी कठिनाइयों से बनाया है अब।
अब किन्तु नहीं कुछ भी साधन बचा
अफसोस! तुमको मैं जी न सका।
उद्विग्नता और खिन्नता ही रहा था
जो मुझे जीना पड़ा है।
तुम्हारी हर कुटिलता भी मुझे पीना पड़ा है।
बस पीड़ा सघन लेकर चलना मुझे
आग के ताप में बस है गलना मुझे।
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अरुण कुमार प्रसाद 5/12/22