जिन्दगी ऐ जिन्दगी
जिन्दगी ऐ जिन्दगी कैसी कयामत लाई है
दोस्तों के नाम की ढेरों शिकायत लाई है।
जिन्दगी ऐ जिन्दगी तेरा अलग ही फ़लसफा
ख़्वाब के ही दरमियाँ तू क्यों हकीकत लाई है।
जिन्दगी ऐ जिन्दगी हर बार मै ही क्यों मरुँ
दुश्मनों की बस्तियों में क्यों शराफ़त लाई है।
जिन्दगी ऐ जिन्दगी कैसा सितम है ढा रही
मिल चुकी हमको सजा तू अब जमानत लाई है।
विवेक प्रजापति ‘विवेक’