“ज़िन्दगी-एक : कर्म-पथ”
चल पड़ी जिस तरफ जिन्दगी
मन्थर-मन्थर धूमिल पथ पर
कुछ फिसलती कुछ सम्भलती
मुट्ठी से जैसे रेत निकलती ।
सूर्य धुँधला सा,
छिपा जा रहा बादलों में
सिमटती जा रही है
रोशनी आसमाँ मे
पग-पग बढ़ रहा
पथिक-पथ पर
सोंचता, कैसी है,
ये जिन्दगी कश्मकश में ।
सम्भल के चलना इन राहों में
लग जायें न काँटे कहीं पाँव में
घाव हो जिस्म में माथे पे सिकन
न जाना ऐसी फिजाओं में ।
गरज रहे बादल, इन काली घटाओं में
सिहर उठता बदन, इन ठण्डी हवाओं में
घिर रहे बादल , घन की ओर से ,
कैसे पहुँचेंगे परिंदे , आशियानों में ।
हे ! मनुज तू बिघ्न की परवाह न कर
हो अडिग सामना कर,
करेगी आत्मसमर्पण प्रकृति भी,
सुष्मित होकर,
तेरी दुर्लभ मेहनत पर ।
आनन्दित होगा हृदय
जब पूर्ण होगी अभिलाषा
जिस पर चलेगा, “जीवन-रथ”
वो है-
“जिन्दगी-एक : कर्म-पथ” ।।
– आनन्द कुमार