जिनको सीने में हम दबाये हैं
जिनको सीने में हम दबाये हैं
आज वो ग़म उभर के आये हैं
तेरी यादों में अश्क़ मोती से
मेरी आंखों में झिलमिलाये हैं
तेरी यादों के आबशार हैं जो
तिश्नगी को मेरी बुझाये हैं
( आबशार = झरना )
ख़ुद ही ग़लती करें हैं रूठे भी
बेवज़ह आज तिलमिलाये हैं
ज़ुल्फ़ खोले वो फिर रहे देखो
आसमां में हुई घटाये हैं
नाम लेकर हमें पुकारो भी
नाम लेने में हिचकिचाये हैं
दफ़अतन सामने हमें देखा
बन के मासूम सकपकाये हैं
रिन्द नाराज़ क्यूँ हैं साक़ी से
जाम साकी ने भी गिराये हैं
और सबने ही साथ छोड़ दिया
अंत तक साथ में भी साये हैं
एक दिन सच भी आएगा बाहर
सच को ‘आनन्द’ क्यूँ छिपाये हैं
– डॉ आनन्द किशोर