जिदंगी की सच्चाई और इन्सान की मजबूरी
जिदंगी की सच्चाई और इन्सान की मजबूरी, ना कोई अपना ना कोई परिवार,
ना घर है ना सोने के लिए बिस्तर, ना कोई सहारा ना कोई उम्मीद,
शारीरिक असहायता, ना पैर है ना कोई आशरा,
किसका करे भरोसा..
सिर्फ भीख मांगना और हाथ फैलाना,
न पास में है आमदनी,
ऐसी मजबूरी और पेट की भूख,
कहाँ से होगी उनकी मेजबानी..
सुबह हो शाम हो जिदंगी ऐसे चलती हो,
नैनो की मौन जुबानी, आसूका समन्दर, ख़ामोशी का माहौल,
दुःख बया करने वाली भाषा में शब्दों की कमी,
निराशा करुणता और लोगो का तिरस्कार,
ऐसे इन्सानों को जब देखते है तब काँपता है ह्रदय,
प्यार का सैलाब और ईश्वरीय ज्ञान, सिर्फ़ पुस्तक एवं संवाद में,
नहीं है क्या इन्सानो में….
बहुत है सवाल ….कहाँ है… दुखोंका खरीददार ….!!!!