ज़िन्दगी
रूठती है मनाती है यह ज़िन्दगी
खेल कितने खिलाती है यह ज़िन्दगी
ख्वाब हरदम दिखाकर सुहाने सदा
पास अपने बिठा ती है यह ज़िन्दगी
दूर अपनों को अपनों से जब भी करें
खूब रोती रुलाती है यह ज़िन्दगी
ज़ख़्म दे कर के मरहम वह खुद ही बने
दर्द पल में मिटाती है यह ज़िन्दगी
चांद तारों से रोशन करे यह जहाँ
ऐसे दीपक जलाती है यह ज़िन्दगी
मौज में जब कभी भी यह आती नज़र
ताज सिर पर सजाती है यह ज़िन्दगी
ले बहारों को जब यह विचरती कहीं
डाल झूला झुलाती है यह ज़िन्दगी
इश्क़ के संग फेरे है इसने लिए
बनके दुल्हन लुभाती है यह ज़िन्दगी
खूबसूरत खिलौना बना कर हमें
देख कितना नचाती है यह ज़िन्दगी
प्राण भर दे किसी भी जो पाषाण में
नाज़ उसके उठाती है यह ज़िन्दगी
सीप के गर्भ में जैसे मोती छुपा
राज अपना छुपाती है यह ज़िन्दगी
है अकेला जो कोई जहाँ में अगर
मीत उसका बनाती है यह ज़िन्दगी
थाम उंगली जो ममता की बच्चा चले
ऐसे चलना सिखाती है यह ज़िन्दगी
जब कभी कोई तूफान गिरे मुझे
बनके पतवार आती है यह ज़िन्दगी
आ हुकूमत चलाती ये हम पर सदा
बात कितनी बनाती है यह ज़िन्दगी
जो इबादत करे है सदा प्यार की
उसको रब से मिलाती है यह ज़िन्दगी
जिसको कण-कण में आता हे ‘माही’ नज़र
माशूका बन रिजाती है यह ज़िन्दगी
डॉ० प्रतिभा ‘माही’