जिंदगी से सदा लड़ता रहा हूँ
* जिंदगी से सदा लड़ता रहा हूँ *
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जिन्दगी से सदा मैं लडता रहा हूँ,
इसी में ही जीता – मरता रहा हूँ।
प्रेम डाह ने तन मन को जलाया,
पतंगों सा बुझता-जलता रहा हूँ।
कोशिशें की कभी काम न आई,
हर पारी जीवन की हरता रहा हूँ।
हसरतें हमेशा ही अधूरी सी रही,
उम्र की पकड़ में ढ़लता रहा हूँ।
अपनो ने हमको जड़ से उखाड़ा,
गैरो के हाथों से मैं उठता रहा हूँ।
बाँहों में ले न संभाला मनसीरत,
उठकर मैं फिर से गिरता रहा हूँ।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)