जिंदगी समर है
चलना सॅंभल -सॅंभल कर,यह जिंदगी समर है।
अब फूल मत समझना, काॅंटों भरा सफर है।
चलते यहाॅं समय से,अब जीतते वही हैं,
यह सोच कर हमेशा,चलता रहा डगर है।
अब ठान जो लिया है,तो पार भी लगाना,
है दूर में किनारा,अरु पास में लहर है।
सिक्के समान लगते,दुख -सुख यहाॅं हमेशा,
भाया उसे यहाॅं जो,छोड़ा नहीं कसर है।
अपने सभी मगन हैं,फुर्सत नहीं किसी को,
कंक्रीट के भवन में, दिखता नहीं शजर है।
पहले यहाॅं नदी थी,अब दिख रहा नहर भी।
उतरा कभी नदी में,समझा यही भॅंवर है।
डी .एन.झा ‘दीपक’ © दिग्पाल गीतिका