जिंदगी को ढूँढता
बाँधकर आंखों पे पट्टी रोशनी को ढूंढता
छोड़कर अपनों को कोई अजनबी को ढूंढता
जिंदा था तब जिंदगी की क़दर भी जानी नहीं
एक मुर्दा फिर से अपनी जिंदगी को ढूंढता
सांझ भी ढलने लगी है अँधेरा घिरने लगा
कोई बूढ़ा फिर से अपनी जवानी को ढूंढता
दीमकों ने खा किताबों के पेज ऐंसे खा लिए
लिखने वाला उसमें अपनी कहानी को ढूंढता
आशियाना जल गया उसका बचा कुछ भी नहीं
फिर भी वह आफत का मारा निशानी को ढूंढता
✍️ सतीश शर्मा