जिंदगी के रंग
तू गहरे की जगह हल्का रंग थी,
बात यह है कुछ अटपटे ढंग-सी।
तूने जो कुछ भी किया,
अपने ऊपर सबका दुख लिया।
फिक्र नहीं की खुद की,
इसका उन्होंने यही सिला दिया।।
यह जो आग है ना…!
इसको खोने मत देना, जिंदा रहना, खुद को रोने मत देना।
ज़मीर चीखेगा, प्रतिकार मांगेगा।
तू जिंदगी को गले लगा। अधिकार मांगेगा।
कल्पना-सी पनप रही जो सिसकियाँ,
मन फिर उठेगा, फ़िर नई रार ठानेगा।।
शायद अब तू पुरानी हो गई है,
‘कीर्ति’ जो थी, कहीं खो गई है।
अब जो आई है कोई और है,
मन में उसके कितना शोर है!
फिर आज रब से दुहाई है,
चिंतित मन, मन हरजाई है।
सोच पर लगे हैं ताले हजार,
खुश रहना अब बेवफाई है।।
गलत तुम नहीं, समय है पर,
मत होने देना ख़ुद पर असर।
हल निकलेगा, देगा दस्तक,
खुद को पहचान, वक्त भी कदमों पर।।
— ‘कीर्ति’