जा बैठे
ढूंढते रहे खुद को हार – थक के जा बैठे
फिर इस तरह से हम खुद को गंवा बैठे
सफ़र वैसे जिन्दगी का रहा है आसान कब
कभी जिन्दगी बैठे तो कभी मेरी जां बैठे
खुद के काम खुद ही तो आना पड़ता है
जब से दुनियादारी को हम आजमा बैठे
जिन्दगी की दौड़ में हो गए जब तन्हा हम
हसरत थी के सामने मेरे सारा जहां बैठे
मतलब की दुनिया है ये इल्म जब मुझे हुआ
तो समझ में आया के कोई क्यों खामखा बैठे
खुद को जानना है बस और कुछ नहीं मन में
ठान जब लिया है ये तो फिर मन में क्या बैठे
दर – बदर हो गया हूँ जिन्दगी की दौड़ में
कोई तो बता मुझे के किसके दर कहाँ बैठे
– सिद्धार्थ गोरखपुरी