जाने क्यो हम कवियों का
जाने क्यों हम कवियों का ऐसा काम नहीं होता
बगल में छुरी रख मुंह में तो राम राम नहीं होता
महफूज रखते है अपना वतन अपनी कलम से
वतन बेच खाने का हमारा कोई दाम नहीं होता
हमको माता कैकयी ने दिया वनवास ये कहकर
तुमसे तो कमबख़्तो घर में भी आराम नहीं होता
मुमकिन है तो जाओ लौटा दो मेरा रामराज्य ही
रावण बन घुम रहे सब क्यों कोई राम नहीं होता
सियासत की दुकाँ से जंग लगी क्या कलमो को
जलता देश तो बुझाने का नामों निशाँ नहीं होता
इंसान होकर तूने ज़मीर बेच डाला कोड़ियो में
उस पर ये शिकवा की कवियों का नाम नहीं होता
चल अशोक तू भी उठाकर रख अपनी दुकाँ यहाँ
मस्जिद में सलाम तो मंदिर में राम राम नहीं होता
अशोक सपड़ा की कलम से