खरोंच / मुसाफ़िर बैठा
जात भात अलगाकर
सदियों से
अपना चूल्हा उचका अलग ऊंचा जलाकर
वर्णवाद से मुटाए
सवर्ण सुई और उसके जनेऊ धागे के बीच
दबे हुए हैं दलित
हालांकि दलित खुद करघा और रूई हैं
जिनके सहारे सुख के बिछावन पर पसर परंपरा से आराम फरमाते हुए
तफरी करते रहे हैं परजीवी द्विज
इस नाजायज सांस्कृतिक आमद के फलस्वरूप
आधुनिक युग के द्विजों की भी चमड़ी
इतनी मोटी और इफेक्ट–प्रूफ हो गई है कि
अपने प्रगतिशील होने का क्लेम करते द्विज भी
अपने खित्ते के लोगों के
स्वाभाविक मनुऔलादी स्वभाव में
जरूरी खरोंच लगाने का
तनिक भी मन नहीं बना पाए हैं।