जाति – धर्मों में बटा आधा इंसान हरगिज न मुझको चाहिए
जाति – धर्मों में बटा, आधा इंसान न मुझको चाहिए,
न मुझको काजी – मुल्ला, न पंडित – पुरोहित चाहिए,
भाता नहीं धर्मों में बटना, आता नहीं हिंदू मुसलमां करना,
हम तो बस इंसां हैं, आता है बस सौहाद्र का खेमा करना,
भेदभाव से रंज है मुझको, फर्क से दुश्मनी अगाध है,
और कुछ नही बस अपने पन से हमें प्यार निर्विवाद है,
इंसान बनना है अगर तो ही अपना हांथ आप उठाईए
आईए इस बार इंसान बन कर ही सब को दिखलाइए,
कोई काटे, कोई बांटे, इसमें भला क्या उल्लास है ?
घर की दहलीज़ों पर बस खून सनी लाश ही लाश है,
किसी भूखे को खाना खिला दो, इस में क्या ब्याघात है
किसी रोते बच्चे को हंसा दो तो, यही अनोखी बात है,
ये भी सच, तरुनाई और वृद्धापन संग साथ चल सकता नही,
तो, उजड़े उपवन को सजाने के लिए बहार ही न्योत कर लाईए,
है घृणा अंधी तो क्या ? भाईचारा पर ही इमान जगाइए,
जाति – धर्मों में बटा आधा इंसान हरगिज न मुझको चाहिए,
जाईए एक बार खुद को खुद में ही ढूंढ़ कर पहले आईए
आकर फिर नफरत पर प्यार का पहरा – गहरा लगाइए ।
… सिद्धार्थ