जाति-जहर
जाति-जहर
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मार्केट में आ गया,
बिल्कुल पुराना पर नया-नया,
काम करता है झट पहर,
नाम उसका जाति-जहर,
बेशक नहीं है विष में कोई मेवा,
परन्तु बहुत ही है यह जानलेवा,
नेता हो या कोई मशहूर अभिनेता,
साफ-सुथरे समाज में गरल घोल देता,
घुट-घुट कर मरता है आवाम,
बिल्कुल खुलेआम-सरेआम,
खुले घूमते हैं जाति-धर्म के दलाल,
मौका लगते कर देते शिकार हलाल,
भर भर देते हैं जन-जन में खोट,
ताकि मिल जाएं उनको उनके वोट,
हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई,
कब्ज़े में कर लेते हैं प्रतिनिधित्व कसाई,
हर शाख पर बैठा है उल्लू,
मिलता जनता को बाबा जी का ठुल्लू,
पीठ पर करते हैं चोट,
कमाते हैं बेईमानी के नोट,
भाईचारे की जड़ें है काटते,
हलाहल बंधुत्व में हैं बांटते,
भाई-भाई का भाई हुआ दुश्मन,
कौरव-पांडवों में नही कोई रहा श्रीकृष्ण,
मनसीरत है बहुत हैरान-परेशान,
सोचकर मानव क्यों बन बैठा है हैवान….।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)