“जाड़े की धूप”
“जाड़े की धूप”
ग्रीष्म बीता, बीती वर्षा;
ठंडक ऐसे, मुंह फैलाए;
जैसे फैलाती है,’सुरसा’;
फिर से , मौसम बदला;
बीता सब , पर्व त्योहार;
बदल गई है , दिनचर्या;
बदला,सबका व्यवहार;
अब तो चाहते, रोजाना;
कोई रंक हो या हो भूप;
मिले उसे,’जाड़े की धूप’
कटी है फसल,धान की,
निकली अब, नई आलू;
चोर-चुहार भी हो गए हैं,
इस मौसम में ही , चालू;
घर-घर, निकला सबका;
चादर , कंबल व रजाई;
धनवान का , ये ‘मौसम’;
गरीबों को, बहुत सताई;
सुबह निकलता , ‘सूरज’;
फिर जल्दी जाता , ‘छुप’
‘अमीर’ हो या हो,’गरीब’;
सब लेते, ‘जाड़े की धूप’।
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स्वरचित सह मौलिक;
……✍️पंकज ‘कर्ण’
……… … कटिहार।।