जाग रे मनुवा
जाग रे मनुवा जाग रे , खोल दे नैनन पट को ।
अंतर्मन में बसे प्रतिक्षण, काहे ढूढें घट घट को ।।
मान रे मनुवा जान रे , छोड़ तू धर्म झंझट को।
इंसानियत जगा ले तू ,कुछ ना जाए मरघट को।।
चल बढ़ा कदम अपना,प्रकाश की तलाश कर।
स्वविवेक से दीप जला,अज्ञानता का नाश कर।।
बहरूपिया करे धंधा,नीलाम करता ईमान को ।
गुरु उसे बनाकर तू, साझा करता बदनाम को।
अस्मिता खुद की भुला, भुला अपना अस्तित्व।
जब से धर्मान्धाता में पड़ा,भुला तुमने दायित्व।
ले सबक ,ना बहक ,अच्छा हो एकांत वास कर।
परोपकार की भाव बसाये, नाम हर श्वास कर।।
क्या सही क्या गलत ?नहीं तुझे कुछ भी भान ।
तेरे जैसे अंधभक्तों को, समझ ना आए विज्ञान ।
होता तेरा तभी तो शोषण , जान तुझे अनजान ।
इस भेड़चाल से कब मुक्त हो,मेरा भारत महान।।
गर गिर गया है खाई में ,चल निकल प्रयास कर।
बन चालक अपना , जीवन को ना वनवास कर।।
(रचयिता:-मनीभाई, बसना, महासमुंद,छत्तीसगढ़)