जागो राजू, जागो…
जागो राजू, जागो…
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जागो राजू, जागो…
अब बहुत हो गया जागो…
क्यूँ कालखंड को नीरव करके ,
पूर्णविराम को आतुर हो।
एक तुम्हीं हो जो हँसा-हँसाकर ,
सारे ग़म को दूर भगाते हो ।
असमंजस में पड़ा काल है ,
उसके ऊपर भी त्रिकाल है।
आँखें खोलो, होश में आओ,
कर्तव्यपथ से कदापि न भागो।
जागो राजू, जागो…
अब बहुत हो गया जागो…
अवसादों में पड़कर मानव ,
पल-पल यूँ ही मरता है ।
अंदर ही अंदर घुटता मानव है,
जब रिश्ता जीवंत खो देता है।
बस तेरी हँसी के कायल हो के ,
रिश्ता नया यहाँ बनता है ।
अपनेपन का मोल तो समझो ,
अब अपने हठ को त्यागो।
जागो राजू, जागो…
अब बहुत हो गया जागो…
एक तुम्हीं हो जो ,
उलझनों के धागे हर पल सीधा रखते हो।
गाँठ न पड़ने देते कभी भी ,
जब हँसी के वाण चलाते हो।
अनायास ही बोझिल पलकें ,
तेरी झलक पाने को तरसतें है।
धैर्य की इस दारुण बेला में ,
अब आलस्यपन भी त्यागो ।
जागो राजू, जागो…
अब बहुत हो गया जागो…
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – १५/०८/२०२२
भाद्रपद, कृष्ण पक्ष ,चतुर्थी ,सोमवार ।
विक्रम संवत २०७९
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