जागे कौन जगाये कौन
छ नंद मुक्त कविता
सब पूछते है
एक दूसरे से
हम कहां जा रहे है?
क्या ज्ज्माना आ गया है
व्यभिचार सब पे छ आ गया है।
जैसे हम जमाने को नहीं
जमाना हम को लाया है
अपनी विवशता को हमने
विरासत में ही पाया है।
ऊपर से कहते हैं
बुद्धिवादी क्यों सो रहे हैं?
जगतद कगों नही
व्यर्थ समय खो रहे हैं?
जैसे जागना दूसरों को है
सोना उनका अधिकार है!
जागृति और क्रांति
ठेकों पर दे दी है
बुद्धि का लेबल दूजों पे लगा
अपने लिए आत्म शुद्धि ले ली है
एकसे दूसरे पर
फिसलती जाती है बात
जागे कौन जगाये कौन
कहती है अंधेरी रात।।