जाएंगे हम जिधर उजाले हैं
कितने मंज़र यहाँ निराले हैं
जाएंगे हम जिधर उजाले हैं
क्या बतायें सफ़र कटा कैसे
है थकन पाँव में भी छाले हैं
मुफ़लिसी क्या कहें अगर ऐसी
जब न खाने को दो निवाले हैं
बाज़ आते नहीं शरारत से
वो कहाँ अब सुधरने वाले हैं
हैं वो मग़रूर इक ज़माने से
उन के अन्दाज़ भी निराले हैं
ये हवा तेज़ क्या डरायेगी
हमने आँधी में भी दीप बाले हैं
वो न गहरा गया समुन्दर में
फिर गुहर भी कहाँ निकाले हैं
आप ही आप बस नज़र आये
हमने जज़्बात जब खंगाले हैं
सब्र ‘आनन्द’ करके जीना है
वक़्त के हम सभी हवाले हैं
– डॉ आनन्द किशोर