ज़िदादिली
खुशी क्या होती है तुम ये क्या जानो ,
मसर्रत के लम्हों को तुम कैसे पहचानो ,
ज़िंदादिल इंसां औरों को खुश देख खुश होता है ,
उनका ग़म बांटकर अपना दिली सुकुँ पाता है ,
वैसे तो दिन तो गुज़रते हैं इस ज़ीस्त में
कश्मकश के ,
चंद खुश़नुमा पल तो गुज़ारो साथ अपने
मह-वश के ,
इस गर्दिश- ए -दौराँ में जीने का
सलीक़ा आ जाएगा ,
ज़िंदगी के मा’नी समझ आ जाएंगे ,
इस दुनिया में जीने का सिला मिल जाएगा।