ज़िंदगी
बिन दीवार की मकान हो गयी है
ज़िंदगी सियासती दुकान हो गयी है !
मेला यहाँ बुझते चिरागों का है
लौ चिराग की बदनाम हो गयी है !
सच की आँख में जलता हुआ अंगार है
कलम की ताकत आज तूफ़ान हो गयी है !
चाँद में दाग तो है , पर बेनूर कभी न था
आज ख़ूबसूरती मगर बेपर्दा सरे आम हो गयी है !
दौर सियासती है बिकने लगी है इंसानियत यहाँ
जुनून ए सत्ता में ईमानदारी क़त्ले आम हो गयी है !
संजीदा रहना ज़िंदगी को रास आने लगा है अब
अजीबो गरीब हादसों से किस्मत भी हैरान हो गयी है !
पथरीले रास्तों सी हो गयी है ज़िंदगी ‘इंसान’ की यहाँ
मुलायम बिस्तर सी ज़िंदगी हैवान की शान हो गयी है !
बदल से गए हैं नज़ारे एक तुम्हारे जाने के बाद
ज़िन्दगी की हर सुबह ढलती शाम हो गयी है !
चले आया करो हर रोज़ महकती हवाओं की तरह
कि बिन तुम्हारे ज़िन्दगी बे आराम हो गयी है !
हर लफ्ज़ में जिंदा रहता है इक एहसास तुम्हारा
हाँ,चले जाने से तुम्हारे ज़िन्दगी की सही पहचान हो गयी है !
….डॉ सीमा ( कॉपीराइट )