ज़िंदगी धुआँ -धुआँ शाम सी लगती है
ज़िंदगी धुआँ -धुआँ शाम सी लगती है
हर बात खास मुझे आम सी लगती है
तन्हाइयों के घर मुझे छोड़ गया वो
रोशनी भी अब गुमनाम सी लगती है
बहका हुआ सा था मिली जिस किसी से में
ज़िंदगी या -रब ये जाम सी लगती है
कामयाबी देखती है दौलत हर सिम्त
मुहब्बत अब मुझे नाकाम सी लगती है
खाते हैं लोग ख़ौफ़ नाम से इसके
उल्फ़त इस क़दर बदनाम सी लगती है
हुये तीनों लोको के दर्शन यहीं मुझको
गृहस्थी ही अब चारों धाम सी लगती है
चल दे जिधर ‘सरु’ रुख़ उधर ही हो जाए
हवाएँ भी उसी की ग़ुलाम सी लगती है