ज़िंदगी की सिलवटें
ये सन्नाटे बड़े गहरे हैं ,शोर मचाने से भी नहीं जाएँगे
इतने हिस्सों में बँट गया हूँ मैं ,तुमसे पहचाने नहीं जायेंगे l
ग़म इतने कम भी नहीं हैं अपने ,कि बता दिए जाएँ ,
ज़िक्र भी छेड़ा अगर , कहने में जमाने लग जाएँगे l
इक उम्र तलक तलाशते रहे हम इस सहरा में पानी ,
अब तो कोई कहता है वहाँ है, तो पीने भी नहीं जाएँगे ।
लाख ज़ख्म खाकर भी ज़िंदा रहे हैं हर हाल में ,
एक धोखा गर और मिला , तो क्या हम मर जाएँगे !!!
डा राजीव “सागर”