ज़िंदगी की जंग
ज़िंदगी की जंग लड़नी नहीं सुलझानी पड़ती है
किसी और की ज़िंदगी में ख़ुशी लानी पड़ती है
वो क्या जो अपने लिए जिये अपने ही मर गये
दूसरों के मुँह पर हंसी लाकर दिखानी पड़ती है
खाते रहोगे अकेले अकेले तो रोटी ना पचेगी
कभी दोस्तों के लिये दस्तरख़ा सजानी पड़ती है
चले आये हो बहुत दूर अब ख़ुद अपनों से भी
घर बुलाने अपनों को भी गुहार लगानी पड़ती है
डा राजीव “सागरी”