ज़िंदगी का सफ़र
आरज़ू कभी न थी के बेमिसाल बन पाऊं ,
हस़रत ये थी के इंसान बन किसी के काम आऊं ,
ज़िंदगी के श़िद्दत – ए – सफ़र की राह में रोड़े बहुत आए ,
कभी खुशियों के लम्ह़े तो कभी गम़गीन पलों के साए ,
कभी दुश्म़नों की साज़िशों से लड़ता आगे बढ़ता ,
कभी दोस्तों के फ़रेब खाकर समझता संभलता ,
इस सफ़र में कुछ अजनबी मेरे बहुत काम आए ,
पर मेरे मुश्किल व़क्त में सब अपने भी हुए पराए ,
इंसानी फ़ितरत को मैं कभी ना जान सका ,
कौन दोस्त है कौन दुश्मन ये ना पहचान सका ,
नाउम्म़ीदी को कभी ज़ेहन पर हावी ना होने दिया ,
स़ब्र का हाथ थाम , आस की श़ुआ दिल में जगाता गया ,
कुछ खोने के ग़म से बेज़ार कभी खुद को संभाला ,
तो कभी कामय़ाबी के मग़रूर ए़़हसास से खुद को निकाला ,
इस तरह रफ्त़ा रफ्त़ा दिन गुज़रते रहे ,
और हम व़क्त के साथ आगे बढ़ते रहे ,