ज़िंदगानी सजाते चलो
पत्थरों को हटाते चलो!
ज़िंदगानी सजाते चलो!!
तीरगी खल रही ग़र तुम्हें!
दीप मन के जलाते चलो!!
बिन रुके ही चलाना कलम!
धार इसमें लगाते चलो!!
तल्ख़ लहज़ा मुसलसल यहाँ !
शायराना बनाते चलो !!
बज़्म में तुम मुसाफ़िर सदा!
गीत -ग़जलें सुनाते चलो!!
धर्मेंद्र अरोड़ा”मुसाफ़िर”
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