ज़रा बज़्म को सजाइये इक बार
ज़रा बज़्म को सजाइये इक बार
ग़ज़लें दिल से सुनाइये इक़ बार
हक़ीक़त भी होगा फ़साना यही
यकीं-ए-उल्फ़त दिलाइये इक़ बार
गिरा के अपनी अदा से बिजलियाँ
कहा अब होश में आइये इक़ बार
किस तरह से होता है दिवाना कोई
भरी ब़ज़्म में मुस्कुराइये इक़ बार
वो भी कहाँ चाहे यूँ रूठ जाना
उसे गले से लगाइये इक़ बार
देखना फिर आएगा पतंगा इधर
बुझे हुए दीप जलाइये इक़ बार
देख तो ले ‘सरु’ वो चीज़ क्या है
बहार को ज़रा बुलाइये इक़ बार