ज़मीं पर जीने की …
ज़मीं पर जीने की …
ज़मीं पर जीने की
ये शर्त हुआ करती है
ज़िंदगी अपने पैबंद
खुद सिया करती है
ये खुद ही जिया करती है
और खुद ही अपनी अजल की
ज़िम्मेदार हुआ करती है
कभी स्याही के लिए जीती है
कभी सहर के लिए मरती है
ये सांस सांस चलती है
और सांस सांस ढलती है
रिश्तों के पन्नों में
अपने अस्तित्व के लिए लड़ती है
जाने किस मिट्टी की बनी है ज़िंदगी
कभी थकती ही नहीं
बस चलती ही रहती है
जलने से पहले भी
और जलने के बाद भी
जन्म दर जन्म
निरंतर
अवरिाम
ये चलती ही रहती है
सुशील सरना/1-9-24