ज़माने से खफा एक इंसान
ज़माने से वो कुछ इस तरह खफा रहते है ,
मुलाकात न किसी से बात ही वो करते है ।
नजर मिले बा मुश्किल तो नजर फेर लेते है ,
या नजरें बचाकर रास्ता ही वो बदल लेते है ।
तन्हाई को ही हमेशा ओढ़ते – बिछाते रहते है ,
और तन्हाई से ही अकसर बातें करते रहते है।
मालूम नहीं क्यों और किसलिए ऐसा करते है ?
शायद ज़माने से कुछ चोट खाए वो लगते है ।
ज़माने में किसी पर भी उनको यकीन ना रहा,
यहां तक के अपनों से भी वोह बेज़ार से रहते है ।
दिल में कुछ और जुबान में कुछ होता है लोगो के ,
शायद लोगों पर यकीन वो बहुत कम ही करते हैं।
सभी रिश्ते दिखते है काग़ज़ के फूलों के गुलदस्ते,
ना इनमें महक ,ना रूप रंग ना ही ताजा लगते है।
अब तो ज़माने की और रौनकें अच्छी नहीं लगती ,
बस मोसिकी और किताबों से ही दिल लगाते है।
जिसके दामन में कांटे ही आए फूल कभी भी नही ,
ऐसे इंसान ही इसीलिए ज़माने से मुंह फेर लेते हैं।
जिस मौत से जमाना डरे उसके लिए वो सौगात है,
यह वो लम्हें है जो सदा के लिए खुदा से मिलाते है ।
“अनु” को तो मुहोबत है उसी खुदा ए महबूब से ,
जिसके इंतजार में हम नजरें बिछाए रहते है ।