*ज़बान*
ज़बान का जो खरा नहीं है!
यकीन उसपे ज़रा नहीं है!!
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लगे असंभव उसे हराना!
वो आंधियों से डरा नहीं है!!
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समझ सके ना किसी की’ पीड़ा!
के’ ज़ख्म जिनका हरा नहीं है!!
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लहू हमारा लो’ पी रहा वो!
गुनाह से दिल भरा नहीं है!!
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रहे मुसाफ़िर सदा शिखर पे!
ज़मीर जिसका मरा नहीं है!!
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धर्मेन्द्र अरोड़ा “मुसाफ़िर”
(9034376051)