ज़बान
ज़बान का जो खरा नहीं है!
यक़ीन उसपे ज़रा नहीं है!!
लगे असंभव उसे हराना!
जो आंधियों से डरा नहीं है!!
समझ सके ना किसी की पीड़ा!
के’ ज़ख्म जिनका हरा नहीं है!!
लहू हमारा लो’ पी रहा वो!
गुनाह से दिल भरा नहीं है!!
रहे मुसाफ़िर सदा शिखर पे!
ज़मीर जिसका मरा नहीं है!!
धर्मेंद्र अरोड़ा”मुसाफ़िर”
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