ज़ख़्म दिल का
ज़ख़्म दिल का
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लम्हा लम्हा जागीर हड़प ली ,
दहलीज पर हम बैठे ही रहे।
धरा ज़ख़्मी हैं जिन अंगारों से ,
उन्हें आसमाँ हम तकते ही रहे।
अनल अनिल भूमि और जल सब ,
बामुशक्कत वो हासिल करते ही रहे।
ईर्ष्या द्वेष और लोभ लालच में ,
तिनके -तिनके हम बंटते ही रहे।
कहतें हैं हम, ये उत्तप्त हवाएँ ,
कभी पास आने देंगे हम नहीं।
अंगारों ने भी कसमें खा ली है ,
लपटें उड़ हम तक आते ही रहे।
खत्म नहीं होती जब मुसीबत,
फिर भी हम आंख मुंदे ही रहे।
अब्र से बूंद टपकता ही नहीं,
पर सब्र सदा हम करते ही रहे।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ०६ /०१/२०२३
पौष,शुक्ल पक्ष,पूर्णिमा,शुक्रवार
विक्रम संवत २०७९
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