जहाँ न पहुँचे रवि
#जहाँ_न_पहुंचे_रवि
-विनोद सिल्ला
रवि और कवि में कोई समानता नहीं। रवि अपना काम करता है। कवि अपना काम करता है। फिर भी कुछ लोग न सिर्फ इनकी तुलना करते हैं, बल्कि मैच फिक्सिंग करके रवि को हरा भी देते हैं। कवि की झूठी वाहवाही कर दी जाती है। झूठी वाहवाही से कवि भी फूलकर कूप्पा होने का कोई सुअवसर नहीं गंवाता। भले ही रवि और कवि की प्रकृति, प्रवृति, गुण-दोष, कार्य अलग-अलग हैं। फिर भी इनमें कुछ न कुछ समानताएं तो अवश्य मिल ही जाती हैं। आज रवि और कवि में एक तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयास करते हैं।
कुछ कवि कालजयी कविताएं रच कर, साहित्य के आकाश में, रवि की भांति सदैव चमकते रहते हैं। हालांकि रवि तो दिन में ही चमकता है। वे दिन के साथ-साथ रात में भी चमकते हैं। वे अपने ही प्रकाश से चमकते हैं, न कि किसी के उधार के प्रकाश से। वे रवि की भांति जहां को प्रकाशित करते रहे कल भी, कर रहे हैं आज भी और करते रहेंगे कल भी।
रवि को कविताओं में बिल्कुल भी रुचि नहीं है। इसलिए वह कभी काव्य गोष्ठी हाल में प्रविष्ट नहीं होता। रवि क्या? अजय, विजय, संजय, रमेश, सुरेश, महेश, रितेश किसी को भी श्रोता के रूप में पहुंचना मंजूर नहीं। लेकिन अपनी पांडुलिपि लेकर काव्य गोष्ठी हाल में कवि पहुंच जाता है। इस नए दौर में कवि अपने कवि मित्रों को ही अपनी रचनाएं सुनाता है और उनकी रचनाएं सुनता है।
कुछ एक वीर रस के कवि अपनी कविताओं में इतनी आग उगलते हैं, जितनी ज्येष्ठ-आषाढ़ में रवि भी नहीं उगलता होगा। श्रंगार रस के कवि प्यार, मोहब्बत, मिलन की ऐसी कविताएं सुनाते हैं। अगर रवि सुन ले तो आग बरसाना छोड़कर बादलों में ही घुसा रहे। विरह रस का कवि जब विरह वेदना सुनाता है तब वह खुद तो मंच पर रोता-चिल्लाता है ही बाकियों को भी रुला देता है। साधारण किस्म का श्रोता तो कह देता है कि आज के बाद इसको नहीं बुलाना। हास्य कवियों की तो बात ही छोड़ दो, वो तो कवि सम्मेलन को भी चुटकला गोष्ठी बनाकर ही दम लेते हैं। उनकी द्विअर्थी बातें रवि सुन ले तो शर्म के मारे पूर्व से निकलना ही छोड़ दे। यह तो गनीमत है कि वह इन आयोजन में पहुंच नहीं पाता। वो तो रवि को एक कवि द्वारा दूसरे कवियों की कॉपी करने के मामलों की भनक नहीं लगी। वरना तो वह भी कभी चंद्रमा की कॉपी करके आधा निकलता, कभी पूरा और कभी निकलता ही नहीं। कभी तारों की कॉपी करके छोटा-छोटा चमकता। कभी मंगल की तरह लाल हो जाता। कभी शनि की भांति छल्लों के साथ निकलता।
रवि कभी दरबारों में भी नहीं पहुंच पाता। यह अच्छी बात है कि वह दरबारों में नहीं पहुंच पाता, नहीं दरबारियों की शोहबत में रवि भी बिगड़ जाता। लेकिन कवि है कि दरबारों में सहर्ष पहुंच ही जाते हैं। पहुंचते ही नहीं बल्कि एक्टिव मोड में भी आ जाते हैं। लग जाते हैं, चाबी वाले खिलौने की तरह रही रटाई बातें करके सरकार का स्तुतिगान करने, कविताएं लिखने। सरकारी खर्च पर प्रकाशित पत्रिकाओं के संपादन में, लेखन में, विमोचन में, व्यस्त हो जाते हैं। अक्सर दरबारियों के पुस्तक लोकार्पण तक राजभवन में ही हो जाते हैं। दरबारी परम्परा में दुम हिलाने में जो जितना पारंगत नवाजिश उतनी ही अधिक। रवि के साथ ऐसा कभी नहीं होता। रवि प्राकृतिक है। रवि का प्रभाव या दुष्प्रभाव सभी पर समान रूप से होता है। वह किसी को निशाना बनाकर क्रिया-कलाप नहीं करता। जबकि कवि अप्राकृतिक होता है, आज-कल उसकी अनेक नई-नई प्रजातियां पनप रही हैं। ये प्रजातियां हैं- फेसबुकिया कवि, अंधभक्त कवि, हिन्दू-मुस्लिम करने वाला कवि, धार्मिक कवि, मौसमी कवि, इत्यादि और भी अनेक प्रजातियां हैं।
कुछ समय से देख रहा हूँ कि प्रत्येक कवि स्वघोषित वरिष्ठ कवि तो हैं ही। एक-एक शहर में कई-कई राष्ट्रीय कवि भी हो गए। पिछले दिनों आगरा के आयोजन में अंतरराष्ट्रीय कवि मिले। मैंने उन्हें व उनके बारे में बड़े ही ध्यान सुना। मैं अपने मन-मुताबिक मापदंड तय करके उनमें अंतर्राष्ट्रीय कवि खोजने लगा। उनका नाम भी उस दिन से पहले कभी नहीं सुना। उनकी कोई कालजयी रचना भी कभी संज्ञान में नहीं आई। छात्रों के पाठ्यक्रम में भी वो शामिल नहीं। मैं इंतजार करता ही रहा कि अंतर्राष्ट्रीय कवि फलां पांडेय के कितने कविता संग्रह प्रकाशित हुए? कितने शोधार्थियों ने इनके लेखन पर शोध किया। उनके कितने संग्रह प्रकाशित हुए न उद्घोषक ने बताए, न ही स्वयं अंतर्राष्ट्रीय कवि ने। अंत में मेरा इंतजार खत्म उस समय हुआ, जब उद्घोषक ने बताया कि फलां पांडेय साहब पंद्रह देशों की यात्रा कर चुके हैं। इसी उपलब्धि के कारण वे अंतर्राष्ट्रीय कवि हैं। तभी मेरे मन में व्याप्त, गुत्थी भी सुलझ गई, कि एक ही शहर में कई-कई राष्ट्रीय कवि कैसे हैं? इस मापदंड के आधार पर मैं राष्ट्रीय कवि तो हूँ ही। बहुत जल्द ही श्री करतारपुर साहब, नेपाल, भूटान और सब कुछ ठीक होने के बाद श्रीलंका जाकर अंतर्राष्ट्रीय कवि होने के मापदंड पूरे करूंगा। रवि जाए भाड़ में। उससे हमने क्या लेना-देना? रवि को कोई प्रशस्ति-पत्र, स्मृति-चिह्न, शॉल, दुशाला, लिफाफा इत्यादि से कुछ लेना-देना। उससे हम ख्यात नाम वालों का क्या मुकाबला? वो, वो है और हम, हम हैं। सही में वहाँ रवि नहीं पहुंच सकता, जहाँ-जहाँ कवि धक्के खाता फिरता है।
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