तीसरी आबादी…
देखो वो पगडंडी पर,
कोई दुल्हन सी जा रही है,
है न कोई साथ फ़िर भी,
नागिन सी लचक रही है ।
तन पर सोलह श्रृंगार,
क्यूँ इतना इठला रही है,
वाणी से मधुर स्वरों में,
ख़ुशियाँ औरों को माँग रही है ।
रख रूप एक महिला का,
कद पुरुषों का सँभाल रही है,
बनकर वो अर्धनारीश्वर,
खुशियों का दीपक जला रही है ।
शामिल होकर के खुशियों में,
सबको दुआएं बाँट रही है,
जन-जन से ले सहयोग,
वो अपना चूल्हा चला रही ।