जहन मे सौ सौ बार आया था वो
जहन मे सौ सौ बार आया था वो
हर बार मगर लगता साया था वो
उसे दिल में बसा रखा है अभी भी
किस मुँह से कहोगे पराया था वो
फिर भी वजूद में रहा मेरे मालिक
न जाने कितनों ने मिटाया था वो
बिखरा हुआ था काटों के दरमियाँ
मुहब्बत से चुनकर उठाया था वो
आज धूप में जलता है फुटपाथ पे
कभी मां ने छांव में सुलाया था वो
अंधेरे घरों के खातिर मुश्किल से
कुछ उजाले मांगकर लाया था वो
राख के ढेर ये कह रहे हैं “आलम”
जलाकर किसी ने बुझाया था वो
मारूफ आलम