जल रहा है
तपिश
शीतल जल रहा है..।
दिन हथेली मल रहा है…।
सुबह
रूठी मुरमुराकर ।
अरूण से
नज़रें चुराकर ॥
दोपहर खल खल रहा है..।
छाँव
ढूँढे छाँव को ही।
पाँव जैसे
पाँव को ही ॥
धूप में कोई गल रहा है…।
शाम
आकर कह रही है।
रात में वह
बह रही है ॥
आज क्या जो कल रहा है..।
बोतलों
में शीत बैठी।
प्यास की
बन मीत बैठी ॥
भाँप जिन्न निकल रहा है..!
तन का
जंगल है झुलसता।
मन का
पर्वत है उलसता ॥
जैसे दावानल रहा है..।
स्वेद
में पानी बदल कर ।
तन से निकले
है उबल कर ॥
ख़ुद को ‘महज़’ छल रहा है..।