जल प्रदूषण की कहानी नदी की जुबानी
जल प्रदूषण की कहानी
नदी की जुबानी
मैं नदी कल-कल बहती,
जंगल गाँव शहर पार करती,
अन्त जा समुद्र में गिरती।
जीवन मेरा गतिशील रहता,
किसी रूकावट से न रूकता,
नित आगे ही आगे बढ़ता।
अनगिनत करती हूँ मैं काम ,
हर प्यासे की प्यास बुझा,
चलती रहती न करती आराम।
भावुक मैं इंसान से भी ज़्यादा,
उसकी गंदगी मुझे बनाती आधा,
उसका स्वार्थ कराता मेरा घाटा।
मुझे विंषैला कर वह इतराता,
उस पर मुझ पर रौब जमाता ,
‘गंदा पानी’ यह तोहमत लगाता।
मैं प्रकृति, है जीवन समर्पित,
सब सह कर भी जीवन देती ,
पर मानव की सोच न बदलती।
मैं ही माता, मैं ही त्राता ,
क्यों मानव समझ न पाता ,
मरने पर मेरी शरण आता ।
मैं इंसान नहीं ,पर इंसान का जीवन हूँ
अपने जीवन के लिए मुझे प्यार करें
माँ कहकर पूजे ,पर मुझे साफ़ भी रखें।
मैं तो क्या अपनी आत्मकथा सुनाऊँ,
एक तो मैं पूजी जाऊँ दूसरे आँसू बहाऊँ,
‘बाढ़़’ कह चिल्लाए ,कारण ख़ुद बन जाए।
मैं तो बहती रहूँगी युगों युगों तक,
पर तुम्हे सम्भलना होगा मानव,
मुझे पूजने से पहले बचाना मानव।
नीरजा शर्मा