जल की व्यथा
पौन भाग तुझमे रहूँ,
तेरे मुझसे होवें काज,
कौन जीव जग में ऐसा,
जिसको ना मेरी आस…
जीवन का रस किसलय मैं हूंँ,
रूँधा कंठ तब शीतल मैं हूंँ,
जीवन की उत्पत्ति मुझ से,
टिके हुये जड़ चेतन मुझसे…
तुमने पर मेरा मूल्य न जाना,
सदा तिरस्कृत तृतीयक जाना,
तो अब मैं रूक न पाऊँगा,
अब धीर न मैं धर पाऊँगा…
जब शाखें उकठा हो जाऐंगी,
जब धरा उष्ण हो जाऐगी,
आकंठ शुष्क जब होवोगे,
तब फूट फूट के रोओगे…
अगणित गज मिट्टी खोदोगे,
फिर बूंद बूंद को दौडोगे,
मै तब विलुप्त सब देखूँगा,
व्याकुल फिर तुमको देखूंगा…
चेतन जब होगें शून्य सदा,
प्रकृति का होगा मौन सधा,
तब फिर मैं ना आ पाऊंगा,
इस धरा को ना अपनाऊंगा…
©विवेक’वारिद’