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13 Jul 2019 · 1 min read

जलता ‘दीप’ इसी आस में

समझदार होने में खोया ,
मैंने अपना प्यारा बचपन
समझदार जो समझा खुद को ,
खो दिया अपना भावुक मन
जिम्मेदारियों की चादर ओढ़ी
बड़ा कर लिया अपना मन
सब का ख्याल रखने की खातिर
सूना हो गया अंतर्मन
क्या वह करता
बड़ा जो था वह घर का
साया सर से उठते ही
जिम्मेदारियों का हो गया उद्यापन
इन्ही जिम्मेदारियों के कारण
दीप कि लौ का तेज हुआ मन
प्रज्ज्वलन की सीमा से गुजार कर
प्रकृति दीप को करना चाहती है शायद रोशन
जलता ‘दीप’ इसी आस में
होगा जरूर जहाँ एक दिन उससे रोशन

जारी
-©कुल’दीप’ मिश्रा

Language: Hindi
219 Views
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