जरूरत
अब न आँखे भरती हैं, अब न दिल पिघलता है,
महज़ बुत के जैसे ही, बदन घर से निकलता है।
कभी कहती थी माँ मेरी, की बेटा बचपना छोड़ो,
अभी कहती वही की क्या, कोई ऐसे बदलता है।।
मैं जानता हूँ कि तुझको भी, मुझसे शिकायत है,
कहूँ कैसे करवटें क्यों वक़्त, मनमानी बदलता है।
पलट कर देखना तो चाहता, पर मैं देख पाता नही,
बंद किवाड़ों के पीछे आंखे तेरी, पानी बदलता है।।
ज़रूरत थी, ज़रूरत है, जो ज़रूरत मन्दी को समझें,
कहाँ वो बेवजह से शाख भी, कोई पत्तर बदलता है।
अदब अब भूलने में आदमियत, है लग गयी इतनी,
की बा-बेबाक मतलबी मंदिरों से, पत्थर बदलता है।।
वो जो काट कर लाये थे दरख़्त, आशियाँ बनाने को,
न देखा कितने परिंदों का, पल भर में घर बदलता है।
अरे हम तो खड़े थे कब से, सफ़े में सबसे ही आगे,
न ये जानते थे हुस्न मिजाज, रह रहकर बदलता है।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ०५/०२/२०१९)