जरुरत ही क्या जख्मों को कुरेदने की…
जरूरत ही क्या
उन जख्मों को
फिर से कुरेदने की!
जिनका अस्तित्व मर चुका हो!
मानवीय संवेदनाएँ लुप्त
हो गयीं हों!
जब तुम्हें सहारे की जरुरत
तब तुमसे मुँह मोड़ ले वह!
जरुरत ही क्या
ऐसे सम्बन्धों को
दिल में रखने की!
जियो खुद से
अपने संस्कारों को संजोये रखो
वह खुदगर्ज है तो क्या?
जरुरत ही क्या तुम्हें?
अपना दर्द जाहिर
करने की!
उम्मीद मत करो किसी से
बल्कि उम्मीद बनो तुम
जो तुमसे कतरा रहा है
खुद को अलग
बता रहा है हर पल!
जरुरत ही क्या
ऐसे साथ को
अपना बताने की!
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शालिनी साहू
ऊँचाहार, रायबरेली(उ0प्र0)