जय मां शारदे
छलदंभ, द्वेष, कपट के मैल को मन से धुला रहा हूँ।
अन्याय, अनीति के सारे माँ आज भेद भुला रहा हूं।
अक्षर-अक्षर जोड़कर नया शब्द बनाना सीखकर
रस, छन्द, अलंकारों का उन्हें पालना झुला रहा हूँ।।
आकर बिराजों माँ शारदे तुम मेरे अन्तःकरण में
करके करूण पुकार माँ आज मैं तुमको बुला रहा हूँ।।
स्वतंत्र गंगाधर