जब ज़ुबाँ बन दुकान जाती है
जब ज़ुबाँ बन दुकान जाती है
ज़ीस्त से दूर शान जाती है
आप हंसते हुए जो आते हैं
पल में सारी थकान जाती है
जो न बाँधी गई शजर से कभी
वो ज़मीं पर मचान जाती है
पर भी तितली के कितने छोटे हैं
फिर भी ऊँची उड़ान जाती है
जबकि आना क़ज़ा ने आयेगी
क्या भगाने से मान जाती है
सर बचाने का फ़ायदा है क्या
जब तिरंगे की आन जाती है
जान जिसको समझ के जीते थे
छोड़कर अब वो जान जाती है
सच से चेहरा पे है चमक ‘आनन्द’
बोलकर झूट शान जाती है
डॉ आनन्द किशोर