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17 Oct 2020 · 1 min read

जब ज़ुबाँ बन दुकान जाती है

जब ज़ुबाँ बन दुकान जाती है
ज़ीस्त से दूर शान जाती है

आप हंसते हुए जो आते हैं
पल में सारी थकान जाती है

जो न बाँधी गई शजर से कभी
वो ज़मीं पर मचान जाती है

पर भी तितली के कितने छोटे हैं
फिर भी ऊँची उड़ान जाती है

जबकि आना क़ज़ा ने आयेगी
क्या भगाने से मान जाती है

सर बचाने का फ़ायदा है क्या
जब तिरंगे की आन जाती है

जान जिसको समझ के जीते थे
छोड़कर अब वो जान जाती है

सच से चेहरा पे है चमक ‘आनन्द’
बोलकर झूट शान जाती है

डॉ आनन्द किशोर

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